विज्ञान जैसे-जैसे समृद्ध होते जा रहा है, भूत-प्रेत कहानियाँ बनते जा रहे हैं। जी हाँ, विज्ञान कभी-भी किसी भी भूत-प्रेत के अस्तित्व को नहीं मानता, पर कुछ रहस्यमयी घटनाओं पर से परदा भी नहीं उठा पाता।
खैर हमें तो मनोरंजन के रूप में इस कहानी को सुनना-सुनाना है और इस लफड़े में नहीं पड़ना है कि भूत-प्रेत होते हैं या नहीं। क्या वास्तव में इनका अस्तित्व है या ये बस किसी कल्पना की उपज हैं। जाने भी दीजिए पर यह भी सत्य है कि इस भौतिक संसार में जो भी आया है, उसे जाना ही है पर कोई समय से जाता है तो कोई असमय ही चला जाता है। साथ ही जो भी इस भौतिक संसार में है, उसकी कुछ न कुछ इच्छाएँ होती हैं, कुछ की इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं तो कुछ की अधूरी रह जाती हैं पर कुछ लोग अपनी इच्छाओं से ऐसे बँधे होते हैं कि वे चाहकर भी, मरने के बाद भी उस इच्छा से दूर नहीं हो पाते और यही तो कारण है उनकी आत्मा का वहाँ भटकने का। भौतिक संसार में भी अपनी अभौतिक उपस्थिति दर्ज कराने का।
विज्ञान में अमीबा की बात होती है, यह कभी स्वाभाविक मौत नहीं मरता। जी हाँ और इतना ही नहीं यह अति सूक्ष्म तो है ही, जिसे नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता, साथ ही इसमें इतनी क्षमता होती है कि बिना शादी किए, बिना किसी और से मिले यह खुद ही दो भागों में बँटकर एक और नए अमीबा को जन्म दे देता है। विज्ञान ऐसे-ऐसे जीवों के अस्तित्व को तो मानता है पर आत्मा को मानने में, बिना शरीर की आत्मा को किसी अन्य के शरीर में प्रवेश होने को मानने में उसकी वैज्ञानिकता आड़ो-हाथ आ जाती है और बिना समझे-बूझे, बिना सत्यता के वह इन बातों को पूरी तरह से नकार देता है। बार-बार मैं कहता हूँ कि इस भौतिक संसार में नकारात्मकता के साथ सकारात्मकता, अच्छे के साथ बुरा, जीव के साथ अजीव सब विद्यमान हैं। हाँ हमारा विज्ञान इनमें से बहुत सारी चीजों को जान नहीं पाया है पर इसमें इन रहस्यों का क्या दोष, क्या विज्ञान जिसको न जान पाया है, मान लें कि ऐसी चीज आदि का अस्तित्व ही नहीं है?
बात को न घुमाते हुए मैं अपनी बात पर आता हूँ और फिर यह कहता हूँ कि मुझे नहीं पता कि भूत-प्रेत होते हैं कि नहीं पर मैं इनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न भी नहीं लगा सकता, क्योंकि मुझे इतना ज्ञान नहीं है। एक छोटी सुनी-सुनाई भूतही कहानी सुनाने के बाद फिर मैं आप सबके समक्ष अपनी काल्पनिक मनोरंजन पूर्ण कहानी रखूँगा, आप सबका आशीर्वाद पाने के लिए ताकि कभी भी कोई जिन्दा या मुर्दा भूत हमें न सताए। एक बार की बात है कि मेरे गाँव के पास के गाँव का एक किशोर जिसका नाम भी किशोर था, चाँदनी रात में करीब 8 बजे एक सुनसान खुरहुरिया (ऐसा कच्चा रास्ता जो खेतों-बगीचों आदि के बीच से जाए या उसके अगल-बगल में घाँस-फूँस, या छोटे-छोटे पेड़-पौधे आदि उगे हों।) रास्ते से होकर अपने गाँव जा रहा था। रास्ते में अचानक उसे एक सियार दिखा जो तेजी से उसके आगे से भाग निकला, लड़का सियार से नहीं डरा पर अचानक क्या देखता है कि वह सियार थोड़ा आगे जाकर एक बिल्ली के रूप में बदल गया। लड़के को लगा कि रात होने के कारण शायद उसे दिखा न हो और सियार कहीं चला गया हो और यह बिल्ली आ गई हो, इसलिए उसने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया पर अचानक कुछ तो ऐसा हुआ कि वह पूरी तरह से डर गया और उसके रोंगते खड़े हो गए। दरअसल हुआ यह कि वह बिल्ली कुछ दूर आगे जाकर रास्ते पर ही रुक गई और अब वह पीछे मुड़कर या किशोर की ओर देखी तो उसकी आँखें काफी बड़ी-बड़ी डरावनी जैसे लगने लगीं और देखते ही देखते वह बिल्ली एक जंगली भैंसे के रूप बदल गई। अब तो उस किशोर की बोलती पूरी तरह बंद, उसके पैर जहाँ थे वहीं पूरी तरह से जड़वत हो गए। उसके आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा था तभी अचानक उसके पीछे से किसी के, “कौन है भाई” कहने की आवाज आई, जो उसे जानी-पहचानी लगी। धीरे-धीरे वह सचेत हुआ पर पीछे न मुड़कर सामने ही देखता रहा, अचानक उसके सामने जंगली भैंसे वाली आकृति एक साँप के आकार में आ गई और तेजी से सरकते हुए वहाँ से निकल गई। दरअसल उसी समय उसी रास्ते से उसके गाँव के दो लोग पास के किसी गाँव से गाय खरीद कर ला रहे थे और उनमें से ही एक ने आवाज लगाई थी। उन दोनों को देखकर उस किशोर के जान में जान जाई और उन दोनों के साथ वह घर आया। खैर उसे अधिक परेशानी तो नहीं हुई पर फिर भी वह 2-3 दिनों तक बुखार से बुत्त रहा। उस बच्चे ने जब यह बात घर वालों को बताई तब उसके बाबा ने कहा कि उस रास्ते पर एक मरियल टाइप का भूत रहता है, जो किसी का कुछ बिगाड़ तो नहीं पाता पर रूप बदलकर लोगों को डराने की कोशिश करता है।
अब लीजिए एक और छोटी कहानी याद आ गई, ये भूत से संबंधित तो नहीं है पर आत्मा, परमात्मा, जादू-टोने, मंत्र आदि के विश्वास को पुख्ता करती है। बहुत समय पहले की बात है। खमेसर पंडीजी के दरवाजे पर एक बहुत ही फलदार आम का वृक्ष था। आम का मौसम आते ही इस वृक्ष की डालियाँ आमों से लद जाती थीं। पकने के बाद इसके फल बहुत ही मीठे हो जाते थे। देखने में भी इसके फल गोल-मटोल और लुभावने होते थे। बच्चे दिनभर इस पेड़ के नीचे पड़े रहते थे कि कहीं से हवा का एक झोंका आए और कोई आम गिर जाए। चूँकि यह वृक्ष पंडीजी के दरवाजे पर था इससे कोई फल नहीं तोड़ पाता था, क्योंकि पंडीजी के घर के किसी न किसी की नजर इसपर लगी रहती थी। एक बार की बात है कि एक हिंगहवा बाबा उस गाँव में आए। हिंगहवा बाबा गाँव-जवार में हर साल आते थे, और हिंग बेचने का काम करते थे। कहा जाता है कि हिंगहवा बाबा बहुत ही नेक-धरम से रहते थे इसलिए उनकी बातें सदा सत्य भी हो जाती थीं। हुआ यूं कि हिंगहवा बाबा हिंग बेचते-बेचते उस पंडीजी के द्वार पर आ गए। आमों को देखकर उन्हें आम खाने की इच्छा जागृत हो गई। उन्होंने पंडीजी के लड़के से कहा कि एक आम दे दीजिए ताकि वे चटनी बनाकर सत्तू के साथ खाएंगे। पंडीजी के लड़के ने कहा कि कच्चा आम नहीं दे सकता, जब पकेगा तो आकर ले लीजिएगा। हिंगुहवा बाबा ने विनतीपूर्वक कहा कि बच्चा आम पकने में अभी बहुत समय है और उस समय मैं केवल आम के लिए क्यों आऊँगा, अभी एक कच्चा आम दे दो। हिंगुहवा बाबा की यह बात सुनकर उस पंडीजी के लड़के ने गुस्से में कह दिया कि जाओ, नहीं देंगे, जब पकेगा तभी आना। उस पंडितकुमार की बात सुनकर हिंगुहवा बाबा ने अपना झोली उठाया और जाते समय बस यही भुनभुनाए कि बच्चा अब यह आम पका खाने को नहीं मिलेगा।
अब देखिए प्रभु की लीला, आम तो पेड़ पर पका दिखता था पर तोड़ने पर वह सड़ा हुआ निकलता था। जितने भी आम पकते थे, सड़कर गिर जाते थे। उस साल एकभी पका हुआ आम खाने को बदा नहीं हुआ। उसके अगली साल पंडीजी के घरवालों ने आम को कच्चा ही तोड़कर भुसौले में पकने के लिए रख दिए पर यह क्या पकते ही सारे आम सड़ गए। अब क्या किया जाए, पेंड़ के पास पूजा की गई, 11 आम गंगाजी में डाले गए, कुछ आम कुछ पंडितों, जरूरतमंदों को दान किए गए पर पके आम का सड़ना बंद नहीं हुआ। खैर उसके बाद हिंगुहवा बाबा भी उस गाँव में कई सालों तक नहीं आए। लगभग 5-7 साल के बाद जब हिंगुहवा बाबा उस गाँव में आए तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने कुछ मंत्र आदि का प्रयोग उस वृक्ष पर किया। खैर इसके बाद कुछ सालों तक वह पेड़ रहा और जबतक बुढ़ा नहीं हो गया, उसके आम पकने के बाद पहले से भी ज्यादे मीठे हो गए थे और पकने के बाद एक भी आम सड़ता नहीं था।
अब असली कहानी पर आता हूँ, जो पूरी तरह से काल्पनिक हो सकती है, ऐसा कहना ही पड़ेगा। वैसे भी इस कहानी से किसी का थोड़ा भी जुड़ाव मात्र संयोग होगा। बात बहुत ही पहले की है। बहुत ही पहले की। हमारे गाँव के एक पंडीजी उस समय कोलकाता (तब कलकत्ता) में चटकल में काम करते थे। उस समय बारिस के समय छाते आदि का उपयोग बहुत ही कम किया जाता था। लोग छाते की जगह किसी और चीज जैसे कि बोरे आदि का उपयोग करते थे। उसी समय पंडीजी का एक चेला जो रंगून में रहता था एक बहुत ही सुंदर छाता उस पंडीजी को दान स्वरूप दिया। पंडीजी उस छाते को दिल से लगाकर रखते, ठीक वैसे ही जैसे इस समय आप तारक मेहता का उल्टा चश्मे के पोपटलाल जी को करते देखते हैं। पंडीजी कहीं भी जाते, छाते को साथ ले जाते। एकबार वही छाता लिए पंडीजी गाँव आ गए। उस समय तक गाँव के किसी के घर पर भी छाता नहीं था। लोग बारिस में बोरे की ओढ़नी बनाकर या दउरा-दउरी से अपने को तोपते हुए बाहर निकलते थे। छाते को देखने के लिए पंडीजी के दरवाजे पर भीड़ लग गई। पंडीजी ने बहुत ही प्यार से उस रंगीन छाते को सबको दिखाया। छाता सबको दिखाने के बाद पंडीजी ने से संभालकर घर में रख दिया। पंडीजी के घर वाले तो यहाँ तक बताते थे कि पंडीजी जब पूजा करने बैठते तो उस छाते की भी पूजा करते।
एकदिन पंडीजी के घर में चोरों द्वारा सेंघ मारी कर दी गई। सेंध लगाकर चोरों ने पंडीजी के घर का सारा सामान तो बहरिया ही ले गए साथ ही पंडीजी के उस प्यारे छाते को भी। पंडीजी को जितना अपने सामान जाने का दुख नहीं था, उससे अधिक उस छाते के लिए वे परेशान हो रहे थे। उनके घर वाले बहुत समझाए कि नया छाता आ जाएगा या उनके उस चेले को बोलकर ही मँगा दिया जाएगा पर पंडीजी किसी की न सुनते हुए उस छाते के लिए बेचैन रहने लगे। अब पंडीजी जब भी पूजा करने बैठते तो उनका मन पूजा में भी नहीं लगता।
खैर एकदिन किसी ने उस छाते को ससम्मान पंडीजी के घर वापस कर दिया था। आखिर वापस क्यों किया, इसके पीछे की कहानी सुनिए। हुआ यह कि जब चोरों ने पंडीजी के घर से चुराए हुए माल का बँटवारा किया तो उस छाते को एक ऐसे चोर को दिया जो काफी दूर के गाँव का रहने वाला था। इसके पीछे कारण यह था कि गाँव-जवार के किसी व्यक्ति को वह छाता न दिख जाए। जिस चोर को वह छाता मिला था, उसने उस छाते को चुराकर अपने घर में रख दिया था। बारिस का समय था और एक दिन उस चोर के छोटे भाई को वह छाता दिख गया। चोर घर पर नहीं था। चोर का छोटा भाई उस छाते को लेकर घर से बाहर निकला। बारिस के साथ ही साथ तूफान भी जोरों पर था। चोर का भाई छाता तो खोल लिया था पर वह उड़े नहीं इसके लिए उसे कसकर पकड़े हुए था। अचानक गाँव के लोगों ने देखा कि चोर का भाई छाते के साथ उड़ने लगा है। गाँव के लोग उस चोर के भाई के पीछे-पीछे भागे और वह छाता उड़ते-उड़ते एक पीपल की ऊपरी डाल पर पहुँच गया। गाँव के कुछ हिम्मती लोगों ने पीपल पर चढ़कर चोर के उस भाई और छातो को उतार लाए। गाँव वालों के समझ में नहीं आ रहा था कि यह छाता इतना ऊपर कैसे उड़ गया और टूटा भी नहीं। कुछ गाँव वालों ने कहा कि तूफान के कारण उड़ गया होगा पर उस चोर के भाई ने कहा कि ऐसा लग रहा था कि छाते में जीव आ गया हो और वह आराम से मुझे लेकर उड़े जा रहा था।
खैर अब तो छाता बाहर आ ही गया था इसलिए एक दिन उस चोर ने भी बारिस में उस छाते को लेकर बाहर निकला। अचानक एक अजीब घटना घटी और बिना तूफान के, बिना हवा के वह चोर उस छाते के साथ उड़ने लगा। उस चोर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। छाते के साथ उड़ते-उड़ते वह एक बगीचे में एक पेड़ पर अटक गया। कैसे भी करके उसकी जान बची।
फिर उस छाते को उसने फेंक दिया पर यह क्या उस छाते को फेंकने के बाद वह घर आया तो क्या देखता है कि छाता तो उसके दरवाजे पर पहले से ही पड़ा हुआ है। किसी अनहोनी के डर से वह पूरी तरह काँप गया। रात को वह कुदाल के साथ ही उस छाते को भी लिया और निकल पड़ा अपने खेत की ओर। खेत में जाकर उसने काफी गहरा गढ्डे खोदा और छाते को उठाकर उसमें डालने की कोशिश की पर यह क्या छाता तो उस पर पूरी तरह हावी हो चुका था और उस चोर को ही उस गढ्डे की तरफ दबाए जा रहा था। देखते ही देखते उस छाते ने उस चोर के एक पैर को धकेल कर उस गढ्डे में गिरा दिया और वह चोर कुछ समझ पाता इससे पहले ही उस छाते ने उस चोर की उस टांग को उस गढ्डे में गाड़ दिया। चोर तो पूरी तरह घबराया हुआ था पर था तो चोर इसलिए अपनी हिम्मत को खो नहीं रहा था। वह मन ही मन सोच रहा था कि अच्छा हुआ कि बड़ा गढ्डा नहीं खोदा नहीं तो आज तो यह छाता हमें उसी में पूरी तरह गाड़ दिया होता। खैर चोर का एक पैर दबाने के बाद छाता चलते हुए गाँव की ओर बढ़ा। कुछ शांति मिलने पर चोर कैसे भी करके अपना पैर उस गढ्डे से निकाला और हाँफते हुए, डरते हुए घर आ गया। घर आकर वह क्या देखता है कि छाता तो घर पर पहले ही पहुँच चुका है।
बेचारा वह चोर पूरी तरह परेशान। लगा अपना सर नोचने कि उस पंडीजी के घर में चोरी ही क्यों की और अगर चोरी कर ही ली तो इस छाते को क्यों अपने हिस्से लिया। यही सब सोच-सोच कर वह पागल हुए जा रहा था और वह छाता तो अब मानती ही न था, प्रतिदिन कोई न कोई नया बखेड़ा खड़ा कर दे रहा था। पूरी तरह से परेशान होने के बाद जब चोर को लगा कि अब उसके जान पर बन आई है, वह एक प्रकांड पंडित से मिला और अपनी दशा-दुर्दशा का वर्णन किया। चोर की बात सुनकर पंडीजी कुछ देर तो मौन रहे फिर अचानक बोल पड़े, दरअसल उस छाते की पूजा कर-करके पंडीजी ने उसमें जान डाल दी है। पंडीजी इस छाते को अपने घर के, परिवार के अंग जैसा मानते हैं, इसलिए अगर तुम शांति चाहते हो तो चुपचाप इस छाते को उस पंडीजी को वापस कर दो पर एक बात याद रखना, उस पंडीजी के घर से जो सामान तुम लोग चुराए थे, उससे अधिक सामान के साथ इस छाते को वापस करना, नहीं तो यह छाता कभी भी तुम्हारा पीछा छोड़नेवाला नहीं है। इसके बाद वह चोर बेचारा क्या करता, अपनी सभी उन चोरी में हिस्सेदार चोरों के साथ मिलकर यह कहानी बताई और फिर सभी चोर बहुत सारा सामान और छाता ले जाकर उस पंडीजी को वापस कर दिए।
सच ही कहा जाता है कि एक पत्थर वह होता है जो मंदिर में चूना जाता है और एक पत्थर वह होता है, जिसकी मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा करके भगवान बनाया जाता है। पत्थर दोनों होते हैं, हो सकता है कि दोनों आपस में सगे-संबंधी ही हों, यानी एक ही जगह से लिए गए हों पर प्राण-प्रतिष्ठा के बाद पत्थर भगवान बन जाता है। मंत्रों में भी बहुत शक्ति होती है और व्यवस्थित रूप से पूजा-पाठ करके, मंत्रोच्चार करके पत्थर में भी प्राण का संचार किया जा सकता है। जय-जय बोलिए और सदा नेक काम करते रहिए।
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