भगवान शिव ने शुक्राचार्य को क्यों निगल लिया था
कथा उस समय की है जब दैत्यों के पुरोहित को कोई शुक्राचार्य नाम से नहीं जानता था. उस समय दैत्यों के पुरोहित को संसार उशना नाम से जानते थे. यह उशना एक शिवभक्त और महान कवि भी थी.
उनके पिता भृगु ऋषि थे और उनकी माता दैत्यराज हिरण्यकश्यप की बहन दिव्या थी. जब उशना युवा हुआ तो अपनी माता के कहने पर वह दैत्यों का पुरोहित बन गया था.
उशना की माता के एक और भाई था जिसका नाम हिरण्याक्ष था. हिरण्याक्ष को कोई पुत्र नहीं था और फिर शिवजी की कृपा से हिरण्याक्ष को अंधक नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई थी. जब हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष देवताओं के साथ युद्ध में मारे गए तो हिरण्याक्ष के पुत्र अंधक को दैत्यों का राजा बना दिया गया.
इस अंधक को यह वरदान था कि जब वह अपनी ही माता को बुरी दृष्टि से देखेगा तब उसकी मृत्यु होगी. यह अंधक दरअसल शिवजी और पार्वती माँ का ही पुत्र था जिसे शिवजी ने हिरण्याक्ष को दे दिया था. अंधक को इस बात का ज्ञान नहीं था और काल की प्रेरणा से उसने माँ पावती के सौन्दर्य के बार में सूना और वह माँ पार्वती पर मोहित हो गया.
।
इसी मोह में अंधक ने भगवान शिव को युद्ध की चुनोती दे डाली और फिर भगवान शिव के गणों का अंधक और उसकी दैत्य सेना के साथ युद्ध हुआ. जब इस युद्ध में अंधक की सेना मरने लगी तो अंधक अपने पुरोहित उशना के पास गया. अब यह जो उशना है उन्होंने भगवान शिव से ही संजीवनी विद्या प्राप्त की थी और वह उसी विद्या के प्रयोग से दैत्यों को फिर से जीवित करने लगा.
जब ऐसा हुआ तो मरे हुए दैत्य फिर से जीवित होकर शिवगणों को कष्ट देने लगे. यह देखकर भगवान शिव ने नंदिकेश्वर को यह आज्ञा दी कि वह भृगु ऋषि के पुत्र को पकड़ कर उनके पास ले आये. भगवान शिव की आज्ञा मानकर नंदी ने एक विकराल बैल का रूप धारण किया जिसके मुख से अग्नि निकल रही थी. नंदी दोड़ता हुआ उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ पर दैत्यों की सेना उशना की रक्षा कर रही थी.
उस समय कोई भी दैत्य नंदी को रोक नहीं पाया, जो भी नंदी के मार्ग में आया वह नंदी के मुख में से प्रकट हुई अग्नि में भस्म हो गया. दैत्यों ने नंदी के उपर तीर, भालों, पर्वत की शिलाओं से और त्रिशुलों से प्रहार किया परंतु दैत्यों के सभी प्रहार विफल हो गए और दैत्यों के देखते ही देखते नंदी ने उशना का अपहरण कर दिया.
उसके बाद नंदी उस स्थान पर पहुंचा जहाँ पर देवों के देव महादेव विराजमान थे. महादेव ने उस समय बिना कुछ कहे उशना को निगल लिया जिस तरह उशना कोई मनुष्य नहीं कोई फल हो. शिवजी का यह महान कार्य देखकर बहुत सारे दैत्य भयभीत हो गए परंतु अंधक उसी स्थान पर रहा और शिवजी से युद्ध करता रहा. उस समय भगवान शिव ने अपना महान त्रिशूल अंधक के वक्षस्थल में उतार दिया और उस त्रिशूल को एक पर्वत के शिखर पर स्थापित कर दिया, क्योंकि अंधक शिव का अंश था इसलिए उसको उस स्थान पर भी मृत्यु नही आई और वह तीन हजार वर्षो तक उस त्रिशूल पर अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा करता रहा.
जब शिवजी ने उशना को निगल लिया तब शिवजी ही कृपा से उशना शिवजी के उदर में जीवित रहा. उशना ने शिवजी के उदर में ही ब्रह्मा, विष्णु, समस्त देवी देवता और यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन हुआ. वहां पर उशना सौ वर्षो तक शिवजी के शरीर में से बाहर निकलने का मार्ग खोजता रहा परंतु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई. उसके बाद उशना को अपनी भूल ज्ञात हुई और वह वहां पर शिवजी की आराधना करने लगा. उस समय शिवजी की कृपा से उशना भगवान शिव के शुक्रमार्ग के द्वारा शिवजी के शरीर से बाहर निकल आया.
उस समय शिवजी ने प्रसन्नता से उशना को कहा क्योंकि तुम मेरे शरीर से बाहर निकले हो इसलिए आज से तुम मेरे पुत्र हो. उस समय माता पार्वती ने भी शिवजी की तरह उशना को पुत्र रूप में स्वीकार किया. उसके बाद शिवजी ने उशना का फिर से नामकरण करते हुए कहा कि तुम मेरे शुक्रमार्ग से प्रकट हुए हो इसलिए आज के बाद तुम शुक्राचार्य नाम से जाने जाओंगे. उसके बाद शुक्राचार्य ने शिवजी और माता पार्वती को प्रणाम किया और वहां से अपने आश्रम चले गए.
? कहानी पसंद आयी तो हमारे फेसबुक और टवीटर पेज को लाइक और शेयर जरूर करें ?